मन हो रहा विकल व्याकुलता तब और बढ़ेगी
पल-पल बढ़ता गहराई कुछ और गहिरेगी
नदी का यह जल रह-रह कर अब खोज करेगाअब छोड़ रहा तटबंध। क्या है इसका मतलब ?
क्या पाना क्या देना बाहर के पट तब और खुलेंगे
कब तक ये सब करना ? पीड़ा का सैलाब दिखेगा
इनसे आखिर क्या है होना ? प्यास लगी है किसे, कहाँ, क्यों
सोच-सोच मन चैन है खोता। इसका कुछ-कुछ भेद खुलेगा।
इससे पूछे उससे पूछे इस पीड़ा को भर ले भीतर
कोई है जो राह बताये? नस-नस में बह जाने देभटक रहा जाने कबसे भीतर बाहर जब एक ही होगा
जाने किसकी आस लगाये? जीवन का तब अर्थ मिलेगा।
जाने किन आवाज़ों के जन-जन के अब बिम्ब बनेंगे
पीछे दौड़ा जाता है कुछ गहरे कुछ धुंधले होंगे
जाने किस धरती का कुछ पीले कुछ काले होंगे
कोना इसे बुलाता है। कुछ साँवर कुछ गोरे होंगे
प्यास लगी है कहीं किसी को भीतर हाहाकार मचेगा
तभी टूट रहे तटबंध। साफ स्वच्छ दर्पन में लेकिनप्यास लगी है कहीं किसी को भीतर हाहाकार मचेगा
तनिक ठहर मन, इनका केवल 'सत्य' दिखेगा।
पहचान ज़रा अब यही 'सत्य' है तुम्हें बुलाता
होती जो हलचल। विकल बनाता पर, दिखाता
क्या है वो जो प्यासा रखता
जन-जन को पीड़ा से भरता।
इस हलचल का इस पीड़ा से मुक्त करे जो
ओर न छोर, उस पथ को ही बनाना है।
फैली है यह चारों ओर यही पथ पुकारा करता है जब,
धधक रहा है जो भीतर विकल मन हो जाता है।
देख सके ग़र वो बाहर, दोनों ओर है आस बराबर
बाहर से फिर भीतर आकर तभी टूटते है तटबंध।
धो दे सारे दर्पन।
शायद कोई बिम्ब उठेगा
प्यास लगे कहीं किसी को,
कहीं टूटते क्यों तटबंध
इसका भी कुछ अर्थ मिलेगा।
- कस्तूरी
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