Sunday, August 30, 2009

कारीगर और किसान



हम गुज़र गए
आँखे चुरा कर , दामन बचा कर
कारीगरों की गलियों से
खून बहता रहा
दोनों तरफ़ की नालियों में

घबरा कर गांवों की तरफ़ दौड़ पड़े
ताजी हवा, पहाड़, नदी , खुले आकाश से
नज़र उतरी धरती की हरियाली पर
और साँस जहाँ की तहां अटक गई .....

यहाँ तो लाशें ख़ुद को ढो रही हैं ...

-कस्तूरी

Sunday, August 23, 2009

अनगढ़ और मनगढ़

बनारस की एक तंग गली में एक खोमचे के पास खड़े होकर अनगढ़ कचालू खा रहे हैं ।
"आज मिर्चवा तनी बेसी हो गयल हौ ... सी... सी ..." -अनगढ़
"अब त मिर्चवा तेज ही चाही " -खोमचे वाला
"काहे ? तेज मिर्चवा खाए से तेजी आ जात हौ कि कां..."-अनगढ़
"हमार कचालू खाय के दिमाग दौड़े लागि कि नाही, देखा !" -खोमचेवाला गर्दन झटक कर बोला।
अनगढ़ कीओर इशारा करते हुए " एनकर दिमाग दौड़े से का हो जाई हो ..."मनगढ़ ने शरारती अन्दाज में पूछा।
"अरे ... अनगढ़वा बोले लागि त...मुर्दा जी जाई। जना जाई की दुनिया जिन्दा हौ। ... कां?" -खोमचेवाला।
अनगढ़ मुस्कियाने लगे।

"बा... अनगढ़ भगवान हो गयलन" -मनगढ़
इतने में पीछे से एक बढ़िया शर्ट-पैंट पहने स्कूटर सवार ने आकर अनगढ़ के कान के पास जोर से हार्न बजाया और चिल्लाया "सुनात ना हौ कां? गली के बीच खड़ा है , मर जाएगा।"
अनगढ़ टस से मस नहीं हुए। मनगढ़ ने अनगढ़ को एक तरफ़ खींचा।
"हम तो किनारे ही हैं जनाब! रास्ता आप ही का है! और कितना परे ढकेलेंगे? " खोमचे वाले ने स्कूटरवाले पर व्यंग कसा।
अनगढ़ ने तेजी से सर घुमा कर स्कूटरवाले को घूरते हुए कहा " काहे संकराचार्य की गलती दोहरा रहे हैं ?"
मनगढ़ ने आँखे फैलाते हुए पूछा " इन्हें क्यों शंकराचार्य बना रहे हो? "
" तब का कहें ... ई कुल आज क संकराचार्य हौव्वें। "
खोमचे के पार गमछे की दुकान में बैठा दुकानदार हंसने लगा। "अनगढ़वा सही त कहत हौ। बिसबिद्यालय में माश्टर हौव्वें।" दुकानदार जा चुके स्कूटर सवार की ओर हाथ फेंकते हुए बोला।
"आजकाल बिसबिद्यालय क मास्टर संकराचार्य कहवावा पसंद करलन की कां... " -मनगढ़
" बाबा ही जानें " खोमचे वाले ने कंधें उचका दिए और बोला "बतिया ई हौ की ई लोगन पढ़-लिखकर माशटर बन जालन, तं औरन के ढेला समझलन। "
"ढेला नाही ... गू-गोबर समझलन। हमसे छू जाई तं एनकी बिद्या अपवित्र हो जाई। तब्बै ई सबके हड़का के परे ढकेलत बा। काहे मनगढ़! बोला... ! ... हम का तोहे गू-गोबर जनात हई ?" -अनगढ़ तैश में आ गए।
इस बात पर मनगढ़ खोमचे वाले की पीठ पर थाप देते हुए ठहाका लगाकर हँसते हैं और खोमचेवाले के पीछे खड़े होकर अनगढ़ के रूप को देख कर उनकी बलाएँ लेते हैं ।
कन्धों में धंसी मरियल गर्दन, हडियल शरीर पर मैला शर्ट जिसके दो बटन टूटे हुए , कमर पर लिपटा मटमैला गमछा, पैर में प्लास्टिक की चप्पल, बिना हजामत का चेहरा, सर पर बिखरे खिचडी बाल, एक हाथ में दोना, दूसरे हाथ में सींक, कचर-कचर चलता मुंह ! पिचके गालों पर छोटी-छोटी शरारत से भरी आँखें और बेहद तेज जबान! ये हैं अनगढ़!
मनगढ़ की अदा पर गली में खड़े सभी लोग हंसने लगे।
" हंस लो... लेकिन देखो, अनगढ़ की बातों में बड़ा दम है।" -मनगढ़ ने सबकी ओर देखते हुए कहा।
"हमार कचालू का असर हौ बाबू... " -खोमचेवाला।
स्कूटर वाले मास्टर साहब का दोष नहीं है. अनगढ़ की भाषा समझिये, यूनिवर्सिटी की शिक्षा का नहीं, बल्कि यह यूनिवर्सिटी की विद्या का दोष है। " -मनगढ़।
"कैसे?" -खोमचे वाले ने कचालू से भरा दोना गाहक के हाथ में पकडाते हुए पूछा।

" यूनिवर्सिटी की विद्या लोगों से अछूती रहती है। चाहरदीवारी के अन्दर 'शुद्ध' बनी बैठी है और भ्रम यह पाले है कि इस चाहरदीवारी के बहार सब अबिद्या है। ये लोग ऐसा सोचने की भूल करते हैं कि यूनिवर्सिटी के बाहर ज्यादातर मूर्ख और जाहिल होते हैं । इसलिए इन्हें आज का शंकराचार्य कह कर अनगढ़ ने इनकी बहुत बड़ी भूल की ओर इशारा किया है। का हो अनगढ़ बात ठीक हौ कि नाही?" -मनगढ़ ने पूछा।
अनगढ़ कचालू खाने में मस्त हैं , पर सहमति में गर्दन हिला रहे हैं ।
सामने की पटरी पर उकडूं बैठ कर अख़बार पढ़ रहे महाशय ने एक बार अनगढ़ की ओर, और फ़िर मनगढ़ की ओर आश्चर्य से देखा।
" बिसबिद्यालय में जाए वालन, सभन के उपदेस देवे क हक़ पाउले हौव्वें । ई ग़लत हौ , त ऊ वैसे मत करा , त ई त पुरान ज़माने क हौ , त ई देहाती हौ , अन्धबिस्वास हौ । चाहे एनके ख़ुद के ऊ काम का हुन्नर हो चाहे न हो । लेकिन सबहीं के काम क समिच्छा जरूर करिहैं । " -अनगढ़
" कैसे भइया?" -अख़बार वाचक
"रचते कम ही हैं , पर औरों की रचना को खंगालने का हक़ इन्हें हासिल हैं। किसानी आती नहीं, किसान को क्या करना चाहिए इसपर इनके पास सलाहों के पुलिंदे हैं । " -मनगढ़।
"तू एकदम्मे सही कहला " -अखबारवाचक
"ये कारीगरों के शिल्प और ज्ञान को विद्या नहीं मानते, मात्र हुनर कह कर उड़ा देते हैं । " -मनगढ़।
" हम जानिला " -अखबार वाचक ।
"हाँ, हाँ इहै त इनमें दोस बा । " -खोमचेवाला ।
"सुदूर जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को असभ्य या अज्ञानी कहने में ये कोई दोष नहीं देखते। सामान्य स्त्रियों के कार्यों में तो इन्हें कमियां ही कमियां नजर आती हैं। इसमें इनका दोष नही, इनकी विद्या का दोष है । " मनगढ़।
"ई कुल केवल एम्मे , बीए , इंजीनिअर , डाक्टर के ही ज्ञान वाला समझलन । औरन क बिद्या के कुछ मनहूँ लें , तब्बो ओके छोट अउर जुगाड़ मतिन मानलन " -अनगढ़।
"बा भई बा , एकदम सही कहत हौव्वा , सचमुच संकराचार्य क ही गलती दोहरावत हौव्वें । " अखबार वाचक का चेहरा एकदम खिल गया , जैसा कोई कठिन सवाल या पहेली अचानक हल हो जाने पर होता है।


कस्तूरी