Tuesday, October 13, 2009

बिद्या में कैसा भेद-भाव ?

घने कोहरे की शाम । मोहल्ले की चाय की दुकान पर भीड़ लगी है । लोगों के मुँह से और चाय के प्याले से भाप उठ रही है। आज माहौल जरा भारी है। कल ही गंगाजी में एक नाव डूबी है। बहस चल रही है की जो लोग डूब कर मर गए क्या उन्हें बचाया जा सकता था?
प्रोफ़ेसर साहब कह रहे है की प्रशासन अगर मुस्तैद हो तो ऐसी घटनाएं न हो। जब हवा चल रही हो तो नाव पानी में न जाने दे। मल्लाहों का क्या ? वो तो पैसा कमाने के लिए तूफानी नदी में भी नाव उतार दें ।
कल्लू चाय वाले को यह बात पची नही । उसने मुड़कर सभासद रामलाल साहनी की ओर देखा और बोला "का भाई, तोहरो भी एहौ ख्याल बा? "
"काहे? हम का बिसबिदालय में पढ़ल हैं जौन सबके दोस बांटी? दुर्घटना तो हो ही जाला। बाकि कलिया जौन दू महारारू और एक बच्चा डूब गयलन ओकर हमहू के बड़ा कष्ट बा।"
"परसासन का जौन गलती बा उनसे बड़ा गलती त एन परफेसेर क हौ। " आपन नटई उचका के अनगढ़ बीच ही में बोल देहलन ।
प्रोफ़ेसर गरम हो कर बोले " गजब बात करते है , भाई इसमें हमारी क्या गलती हो सकती है? "
कल्लू के हाथ रुक गए। बात उसके भी समझ में नही आई। उसने प्रश्नवाचक मुद्रा में अनगढ़ की ओर देखा।
"अनगढ़ बे सिर पैर की बात कर रहे हैं ।" ब्रिजेन्द्र सिंह , महापालिका में कर्मचारी है, बोले। प्रोफ़ेसर साहब ने दोष प्रशासन पर ही मढा था लेकिन ब्रजेन्द्र उनकी रक्षा में खड़े हो गए।
रामलाल साहनी के मन की गहराई में कहीं हलचल हुई । अनगढ़ की बात का अर्थ लगाने की कोशिश करने लगे। लेकिन उनका दिमाग इस भाव के समर्थन में कोई तर्क नहीं गढ़ पा रहा था ।
"अनगढ़वा ऐसे ही अंडबंड बोलता है। न कद देखा, न पद देखा , बस बिना सोचे समझे मुँह खोल दिया। " एक वकील साहब प्रोफ़ेसर की मदद में उतर आए।
" जल पुलिस के पौडी न आई त का होई ? " वकील साहब की ओर गरदन टेढी कर अनगढ़ ने पूछा।
अब एक शिक्षक मैदान में उतर आए। कहने लगे "मल्लाहन का बचाव जिन कर अनगढ़। मल्लाहन की गलती पुलिस पर जिन थोपा । "
अनगढ़ थोड़ा आराम से बैठ गए और कल्लू से एक और चाय मांगी। तब तक मनगढ़ पहुंचे। मित्रों ने बताया की माजरा क्या है। अनगढ़ विचार है तो मनगढ़ उनकी भाषा। बात इधर उधर की होती रही और मनगढ़ ने ऐलान कर दिया की अनगढ़ सही है ।
तभी अनगढ़ बोल पड़े " अगर पर्फेसरन के एतना तनख्वाह और सुबिधा न मिले त औरहूँ के ज्ञान क परतिस्ठा समाज में होई। "
कुछ लोगों के सर पर से पानी जाने लगा। अनगढ़ की दो बातों का आपस में क्या सम्बन्ध है?
एक तेज़तर्रार राजनैतिक कार्यकर्ता जो अब तक केवल देख-सुन रहा था बोला "भइया बतिया मामूली न हव। दो महारारून अउर एक बच्चा का प्रान गयल ह । एनकर ओनकर इज्जत चाहे परतिस्ठा का सवाल न हव। जौन सही बात हव ऊ सामने आये ही के चाही।"
प्रोफ़ेसर और वकील के चहरे पर खिल्ली उडाने वाली हँसी खेल गई।
मनगढ़ बोले "बात हलके से कोई नहीं ले रहा है। देखा भाई, मल्लाहन का अपन साइंस होले । इ बतिया मनबा त अनगढ़ हु क बात समझ में आई। पानी या नदी का जैसन जानकर मल्लाह होलन, अउर कौनो ना होत। प्रोफ़ेसर साहब अंग्रेज़ी पढ़ावलन, ओन्हें हुनर की बतिया न समझ में आवला, पर ज्ञानी ओनही के मानल जाला अउर बतिया ओनही के चलेला। जबले कारीगरन क बिद्या पढ़ल-लिखल लोगन के बराबर नाही मानल जात तबले अज्ञानी के भी जिम्मेवारी की नौकरी मिलत रही अउर ऐसन दुर्घटना होत रही। गंगाजी क किनारा मल्लाहन के हवाले कर दा तब देखा कैसन परिवर्तन होला? "
रामलाल सहनी को इस बात से जोर आ गया। वे बोले " जेनके पौडी न आवला ओनके हर महिना के अंत में १०-१५ हज़ार हाथ में रख जात हौ। अउर जे पानी के बिसेसग्य हौवें ऊ सबेरे से साम तक नाव चलावलन तब्बो ३-४ हज़ार से ज्यादा न कमा सकत हौव. ऐसे में का होई? "
"भाईजान, ई कालेज में पढ़ाई जाने वाली बिद्या ना हव। पढाव ना पढाव महीने के महीने पैसवा मिलबैकरी। मल्लाहन के काम में रिक्स बा। ख़ुद के जान की रिक्स पे दूसरे क जान बचाए वाली बिद्या हौ। मामूली बात ना हव।" अनगढ़ ने प्रोफेसर , वकील अउर नगर पालिका के कर्मचारी की ओर नज़र घुमाते हुए कहा।
प्रोफ़ेसर साहब गुस्से में खड़े हुए और चल दिए।

बुधराम


Sunday, September 20, 2009

अपराजित























अपराजित

सर्दियों की शाम
दिनभर की थकान
डुबा दे एक गरम चाय के प्याले में।

रह-रहकर कौंध जाती है
एक तस्वीर...
शाम के धुंधलके में
बूढों के तानें और
रिरियाते बच्चों से घिरी
बाट तकती दो आंखें।
बेकल मन से उठती हूक
डुबा दे , एक गरम चाय के प्याले में।

साथियों के साथ गर्मजोशी
मालिकों के साथ रस्साखेंची
राजनैतिक सरगर्मी
बहसों का सैलाब
जीवन का संग्राम
और कल के लिए नई सोच
नया जोश और नया ...
आओ दोस्त, एक प्याला और



कस्तूरी






Saturday, September 5, 2009

हम त केहू के ना मानित

मैं कई साल बाद बनारस वापस आया था। बस बालिग होते होते ही यहाँ से चला गया था, इसलिए यहाँ की कोई दार्शनिक याददाश्त नही थी । अब दर्शन पढ़ कर आया , तो जहाँ दर्शन न हो वहां भी दिखाई देता था। थोड़ा बहुत तर्क देना भी सीख आया था, सो दोस्त लोग चाहे ना मानें , कई बार जवाब नही दे पाते थे ।
हम लोग शहर में घूम रहे थे और बुलानाले के इलाके में एक जगह चाय पीने बैठ गए। कुछ ट्राफिक कंट्रोल था , इधर से जाइये , उधर से मत जाइये , वगैरह ।
हमने बगल में बैठे आदमी से पूछा "क्या बात है ? टहरेहू न दी हैं का ?"
वह बोला " चीफ जस्टिस आफ इंडिया आयल हौव्वें । बाबा ( विश्वनाथ ) क दरसन बदे। एही से ई कुल नाकाबंदी हौ। "
इससे पहले कि मैं कुछ कहता, उसके बगल में बैठा आदमी बोल उठा "होइहैं कौनो , हम त बाबा के मानीला और केहू के न मानित । "
मैं इस वक्तव्य की दार्शनिक गहराई में उतर ही रहा था, कि चायवाला गदगद होकर हंस पड़ा। बोला "एही से त हम एन्हें पसंद करीला , जब बोललन तब एकदम असली बात! "
पहले वाले आदमी ने पूछा " औघड़ हौव्वें की का ? "
दुकान वाला बोला " ना ही, सब जने एन्हे अनगढ़ कहलन "

जब मैं पीएच डी कर रहा था, तब पी जी हॉस्टल की कैंटीन ने यह ख्याति अर्जित की थी कि यहाँ अक्सर कांट और मार्क्स पर चर्चाएं सुनाई देती हैं । लड़के गर्व करते थे कि ऐसी जबर्दस्त जगह पर हम रहते हैं । दार्शनिक विषयों की चर्चाओं के बारे में मेरे एक दोस्त एक किस्सा सुनाया करते थे, कहते थे " शंकराचार्य जब मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने मिथिला गए तो गाँव के बाहर कुएं पर पानी भरती एक स्त्री से उन्होंने मिश्राजी का घर पूछा । जानते हैं स्त्री ने क्या उत्तर दिया? उसने घर का रास्ता बताया और कहा कि उस गली में जिस घर के बाहर तोते यह बहस कर रहे हों कि सत्य ज्ञान का अन्तर्निहित गुण है या बाह्य गुण है, वही घर मिश्राजी का है। "

इस क्षेत्र के लोगों की दर्शन रूचि और दर्शन क्षमता के उदाहरणों की कोई कमी नही है। लेकिन आज चाय की दुकान पर का यह सामना शंकराचार्य , मंडन मिश्र , याज्ञावल्क्य , सुकरात , कांट या मार्क्स का सामना करने जैसा नही था। बड़ी से बड़ी सत्ता को नकारने का बुनियादी विचार सामान्य लोगों में कौन सी गलियों से चल कर आता है?मिट्टी में दर्शन हो तो उसकी गंध सामान्य लोगों की वाणी से आती है।

याद करता हूँ तो लगता है कि मेरे लिए यह एक निर्णयात्मक एनकाउंटर था। दर्शन कहाँ होता है इससे परिचय की शुरुआत हुई ।

किसी बुनियादी परिवर्तन का सैद्धांतिक आधार ऐसे विचारों में खोजा जाए तो कैसे रहेगा?

बुधराम

Sunday, August 30, 2009

कारीगर और किसान



हम गुज़र गए
आँखे चुरा कर , दामन बचा कर
कारीगरों की गलियों से
खून बहता रहा
दोनों तरफ़ की नालियों में

घबरा कर गांवों की तरफ़ दौड़ पड़े
ताजी हवा, पहाड़, नदी , खुले आकाश से
नज़र उतरी धरती की हरियाली पर
और साँस जहाँ की तहां अटक गई .....

यहाँ तो लाशें ख़ुद को ढो रही हैं ...

-कस्तूरी

Sunday, August 23, 2009

अनगढ़ और मनगढ़

बनारस की एक तंग गली में एक खोमचे के पास खड़े होकर अनगढ़ कचालू खा रहे हैं ।
"आज मिर्चवा तनी बेसी हो गयल हौ ... सी... सी ..." -अनगढ़
"अब त मिर्चवा तेज ही चाही " -खोमचे वाला
"काहे ? तेज मिर्चवा खाए से तेजी आ जात हौ कि कां..."-अनगढ़
"हमार कचालू खाय के दिमाग दौड़े लागि कि नाही, देखा !" -खोमचेवाला गर्दन झटक कर बोला।
अनगढ़ कीओर इशारा करते हुए " एनकर दिमाग दौड़े से का हो जाई हो ..."मनगढ़ ने शरारती अन्दाज में पूछा।
"अरे ... अनगढ़वा बोले लागि त...मुर्दा जी जाई। जना जाई की दुनिया जिन्दा हौ। ... कां?" -खोमचेवाला।
अनगढ़ मुस्कियाने लगे।

"बा... अनगढ़ भगवान हो गयलन" -मनगढ़
इतने में पीछे से एक बढ़िया शर्ट-पैंट पहने स्कूटर सवार ने आकर अनगढ़ के कान के पास जोर से हार्न बजाया और चिल्लाया "सुनात ना हौ कां? गली के बीच खड़ा है , मर जाएगा।"
अनगढ़ टस से मस नहीं हुए। मनगढ़ ने अनगढ़ को एक तरफ़ खींचा।
"हम तो किनारे ही हैं जनाब! रास्ता आप ही का है! और कितना परे ढकेलेंगे? " खोमचे वाले ने स्कूटरवाले पर व्यंग कसा।
अनगढ़ ने तेजी से सर घुमा कर स्कूटरवाले को घूरते हुए कहा " काहे संकराचार्य की गलती दोहरा रहे हैं ?"
मनगढ़ ने आँखे फैलाते हुए पूछा " इन्हें क्यों शंकराचार्य बना रहे हो? "
" तब का कहें ... ई कुल आज क संकराचार्य हौव्वें। "
खोमचे के पार गमछे की दुकान में बैठा दुकानदार हंसने लगा। "अनगढ़वा सही त कहत हौ। बिसबिद्यालय में माश्टर हौव्वें।" दुकानदार जा चुके स्कूटर सवार की ओर हाथ फेंकते हुए बोला।
"आजकाल बिसबिद्यालय क मास्टर संकराचार्य कहवावा पसंद करलन की कां... " -मनगढ़
" बाबा ही जानें " खोमचे वाले ने कंधें उचका दिए और बोला "बतिया ई हौ की ई लोगन पढ़-लिखकर माशटर बन जालन, तं औरन के ढेला समझलन। "
"ढेला नाही ... गू-गोबर समझलन। हमसे छू जाई तं एनकी बिद्या अपवित्र हो जाई। तब्बै ई सबके हड़का के परे ढकेलत बा। काहे मनगढ़! बोला... ! ... हम का तोहे गू-गोबर जनात हई ?" -अनगढ़ तैश में आ गए।
इस बात पर मनगढ़ खोमचे वाले की पीठ पर थाप देते हुए ठहाका लगाकर हँसते हैं और खोमचेवाले के पीछे खड़े होकर अनगढ़ के रूप को देख कर उनकी बलाएँ लेते हैं ।
कन्धों में धंसी मरियल गर्दन, हडियल शरीर पर मैला शर्ट जिसके दो बटन टूटे हुए , कमर पर लिपटा मटमैला गमछा, पैर में प्लास्टिक की चप्पल, बिना हजामत का चेहरा, सर पर बिखरे खिचडी बाल, एक हाथ में दोना, दूसरे हाथ में सींक, कचर-कचर चलता मुंह ! पिचके गालों पर छोटी-छोटी शरारत से भरी आँखें और बेहद तेज जबान! ये हैं अनगढ़!
मनगढ़ की अदा पर गली में खड़े सभी लोग हंसने लगे।
" हंस लो... लेकिन देखो, अनगढ़ की बातों में बड़ा दम है।" -मनगढ़ ने सबकी ओर देखते हुए कहा।
"हमार कचालू का असर हौ बाबू... " -खोमचेवाला।
स्कूटर वाले मास्टर साहब का दोष नहीं है. अनगढ़ की भाषा समझिये, यूनिवर्सिटी की शिक्षा का नहीं, बल्कि यह यूनिवर्सिटी की विद्या का दोष है। " -मनगढ़।
"कैसे?" -खोमचे वाले ने कचालू से भरा दोना गाहक के हाथ में पकडाते हुए पूछा।

" यूनिवर्सिटी की विद्या लोगों से अछूती रहती है। चाहरदीवारी के अन्दर 'शुद्ध' बनी बैठी है और भ्रम यह पाले है कि इस चाहरदीवारी के बहार सब अबिद्या है। ये लोग ऐसा सोचने की भूल करते हैं कि यूनिवर्सिटी के बाहर ज्यादातर मूर्ख और जाहिल होते हैं । इसलिए इन्हें आज का शंकराचार्य कह कर अनगढ़ ने इनकी बहुत बड़ी भूल की ओर इशारा किया है। का हो अनगढ़ बात ठीक हौ कि नाही?" -मनगढ़ ने पूछा।
अनगढ़ कचालू खाने में मस्त हैं , पर सहमति में गर्दन हिला रहे हैं ।
सामने की पटरी पर उकडूं बैठ कर अख़बार पढ़ रहे महाशय ने एक बार अनगढ़ की ओर, और फ़िर मनगढ़ की ओर आश्चर्य से देखा।
" बिसबिद्यालय में जाए वालन, सभन के उपदेस देवे क हक़ पाउले हौव्वें । ई ग़लत हौ , त ऊ वैसे मत करा , त ई त पुरान ज़माने क हौ , त ई देहाती हौ , अन्धबिस्वास हौ । चाहे एनके ख़ुद के ऊ काम का हुन्नर हो चाहे न हो । लेकिन सबहीं के काम क समिच्छा जरूर करिहैं । " -अनगढ़
" कैसे भइया?" -अख़बार वाचक
"रचते कम ही हैं , पर औरों की रचना को खंगालने का हक़ इन्हें हासिल हैं। किसानी आती नहीं, किसान को क्या करना चाहिए इसपर इनके पास सलाहों के पुलिंदे हैं । " -मनगढ़।
"तू एकदम्मे सही कहला " -अखबारवाचक
"ये कारीगरों के शिल्प और ज्ञान को विद्या नहीं मानते, मात्र हुनर कह कर उड़ा देते हैं । " -मनगढ़।
" हम जानिला " -अखबार वाचक ।
"हाँ, हाँ इहै त इनमें दोस बा । " -खोमचेवाला ।
"सुदूर जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को असभ्य या अज्ञानी कहने में ये कोई दोष नहीं देखते। सामान्य स्त्रियों के कार्यों में तो इन्हें कमियां ही कमियां नजर आती हैं। इसमें इनका दोष नही, इनकी विद्या का दोष है । " मनगढ़।
"ई कुल केवल एम्मे , बीए , इंजीनिअर , डाक्टर के ही ज्ञान वाला समझलन । औरन क बिद्या के कुछ मनहूँ लें , तब्बो ओके छोट अउर जुगाड़ मतिन मानलन " -अनगढ़।
"बा भई बा , एकदम सही कहत हौव्वा , सचमुच संकराचार्य क ही गलती दोहरावत हौव्वें । " अखबार वाचक का चेहरा एकदम खिल गया , जैसा कोई कठिन सवाल या पहेली अचानक हल हो जाने पर होता है।


कस्तूरी