Wednesday, July 27, 2016

पिया बहुरूपिया - एक अनुभव

इस बार सावन में मुम्बई की यात्रा के दौरान पृथ्वी थियेटर में अतुल कुमार निर्देशित  'पिया बहुरूपिया' नाम का नाटक देखने को मिला। नाटक कर्ताओं के अनुसार यह शेक्सपीअर के हास्य नाटक 'ट्वेल्थ नाइट ' का हिंदी अनुवाद है। इस नाटक को देखना वास्तव में एक नया, शायद चमत्कारी, अनुभव था।

घोषित रूप में यह हास्य नाटक कहा गया है, जिसमें प्रेम में पगी उत्कंठा, आकांक्षा, आवेग, पागलपन, गलतफहमियां, आशा-निराशा, से उत्पन्न हास्य की प्रधानता है।  जुड़वां भाई बहन के रूप में समानता, बहन का पुरुष वेश में अपने जुड़वां भाई की खोज में निकलना और इस दौरान स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम की अभिव्यक्ति के अनेक नाटकीय प्रसंग, प्रमुख पात्रों का अपने प्रेमी से विरक्त हो किसी और की चाहत में रहना व इस सबसे हास्य के अनेक प्रसंगों का घटते जाना इस नाटक की थीम है।  हास्य को ठेठ देसी रंग देने के लिए नौटंकी विधा का बखूबी इस्तेमाल किया है। विभिन्न भारतीय भाषाओँ में अंग्रेजी शब्दों का तड़का देकर हास्य में बढ़ोत्तरी की है।  लेकिन यह इस नाटक की विशेषता नहीं है।  नौटंकी विधा का रंगमंच में सफल प्रयोग तेंदुलकर और हबीब तनवीर के नाटकों  के बाद से लगातार  होता रहा है। अंग्रेजी और देसी बोलियों के शब्दों का मिक्स चटपटा हास्य एनिमेशन कार्टून फिल्मों और कॉमिक्स में लोकप्रिय हो ही चुका है।  वेशभूषा, अभिनय और प्रसंगों के मार्फ़त जो हास्य पैदा किया है वो कभी अच्छा बन पड़ा है और कभी बेहद फूहड़ भी है।  इसके बावजूद यह नाटक एक नया अनुभव कराता है। नया क्या था?



पूरे नाटक के दौरान कथ्य (कहानी) और कथन (अभिव्यक्ति) पर नज़र रखते हुए यह सवाल बार-बार उठता रहा कि क्या यह केवल हास्य नाटक है? मन नहीं मान रहा था, क्योंकि अगर है, तो हास्य के स्तर में ऐसी कोई अद्भुत क्षमता नही दिखाई दी जो नाटक को 'चमत्कारिक अनुभव' बना दे।  नाटक की यह हिंदी प्रस्तुति 'केवल' हास्य नाटक की श्रेणी में खड़ी होने से इंकार करती जान पड़ी।  इंटरवल तक कथ्य पर कथन लगातार हावी जान पड़ा। गीत- संगीत दमदार और अभिनय भी जानदार। विभिन्न भारतीय भाषों के लोकगीतों का सरल और सुन्दर संयोजन, उस पर संवादों का चुटीलापन। इस सबके बावजूद इंटरवल तक असमंजस की स्थिति बनी रही कि हम क्या देख रहे हैं ? इंटरवल के बाद नाटक के एक पात्र, सेबेस्टियन ( अमितोष नागपाल ) का यह कहना "नाटक का हिंदी अनुवाद मैंने बड़ी मेहनत से किया लेकिन देखने वाले कहते हैं कि शेक्सपियर ने क्या खूब लिखा है!" ने अचानक चौंका दिया।  उद्वेलित मन ने नाटक के पूर्व भाग के प्रसंगों को इस वाक्य के प्रकाश में स्मृति पटल पर ला दिया।  इसी वाक्य ने नाटक को नए अर्थ से देखने का रास्ता भी खोल दिया और अचानक 'पिया बहुरूपिया' एक रूपक में ढल गया! कथ्य का दार्शनिक पक्ष पूरे देसी सन्दर्भ के साथ उठकर सामने खड़ा हो गया। शेक्सपियर के स्थान-काल-संस्कृति को भेदता हुआ 21 वीं सदी के भारत की ज़मीन पर एक नए अर्थ को प्रासंगिक बनाता सटीक अभिव्यक्त हो उठा। नाटक की शक्ति का स्रोत यहाँ था।

नाटक के कथ्य का दार्शनिक सार यह है की व्यक्ति जिस दूसरे (व्यक्ति) की चाहत (आकांक्षा) करता है , वह किसी और ही की चाहत करता है और यह कड़ी बनती चली जाती है। हालाँकि नाटक में केवल स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम को ही विषय बनाया गया है, लेकिन यह समाज और सभ्यता के सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखने का रास्ता भी खोल देता है, जिसके चलते यह मात्र हास्य नाटक नहीं रह जाता।


अमितोष नागपाल (सेबेस्टियन की भूमिका में)


वास्तव में सेबेस्टियन का दर्द 21 वीं सदी के भारत का दर्द है। कितनी भी मौलिकता, लगन और मेहनत से देसी टैलेंट आप लगायें, श्रेय तो वही ले जायेंगे जो दुनिया पर राज कर रहे हैं। और जो लोग श्रेय लूटने वाले राज की वाह - वाही  में जुटे हैं, वें वास्तव में उसी 'चाहत' के शिकार मात्र हैं जिसे नाटक में विभिन्न पात्रों के मार्फ़त उजागर किया है। अपनों से विरक्त हो किसी और के जैसे होने/पाने की चाहत का शिकार तो आज भारत जैसे देशों का पढ़ा - लिखा समाज ही है। यह पढ़ा - लिखा समाज जिनके समान (अमेरिका या यूरोप के लोगों की तरह) होने की चाहत रखता है - वें इसको अपने सेवक से अधिक नहीं देखते, और इनके सहारे कुछ और ही पाने की मंशा भी रखते हैं। ये बहुरूपिये बने पढ़े - लिखे लोग समाज के हर स्तर पर बिखरे मिल जाते हैं।  अहा! अपने समाज पर बेहद करारा व्यंग्य है ये !

 नाटक का 'चमत्कारी अनुभव' यही था। इतनी सहजता से यह अनुभव करा देने के लिए नाटक के सभी कलाकार निश्चित ही बधाई के पात्र हैं। अब मंच पर लगी शेक्सपियर की बहुत बड़ी तस्वीर मात्र 'बहुरूपिया ' शब्द की अभिव्यक्ति मात्र नहीं रह जाती, बल्कि देसी चाहत और संस्कृति की मिलीजुली अभिव्यक्ति भी बन जाती है। तस्वीर में शेक्सपियर के सर पर मोर पंख सहित देसी टाइप का मुकुट है, नीचे कमल है, आदि।

हो सकता है नाटक के तमाम कलाकार इस तीखे व्यंग्य से अनजान रहे हों और शायद बहुत से दर्शक भी,  नाटक की जो कुछ थोड़ी समीक्षाएं मैंने पढ़ी उससे  मुझे ऐसा ही लगा।  यह सही है कि नाटक में यह व्यंग्य पर्याप्त रूप से विकसित  नहीं हुआ है ( हो सकता  है की कलाकार भी यही सोच रहे हों की वें  शेक्सपियर का ही नाटक खेल रहे हैं ) लेकिन इसी के चलते यह नाटक रूपक में ढल गया है और अगले प्रयोगों में इसे विकसित किया जाये तो नाटक निस्संदेह अधिक प्रभावी बनेगा। चूँकि शेक्सपियर के मूल नाटक में यह व्यंग्य नहीं है और अमितोष नागपाल के हिंदी अनुवाद में है तो यह नागपाल की मौलिकता है और वे बधाई के पात्र हैं। गीत-संगीत और अभिनय को छोड़ दें तो हास्य नाटक के रूप में नाटक में कोई विशेष दम नहीं है।

चित्रा सहस्रबुद्धे

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