Sunday, September 20, 2009

अपराजित























अपराजित

सर्दियों की शाम
दिनभर की थकान
डुबा दे एक गरम चाय के प्याले में।

रह-रहकर कौंध जाती है
एक तस्वीर...
शाम के धुंधलके में
बूढों के तानें और
रिरियाते बच्चों से घिरी
बाट तकती दो आंखें।
बेकल मन से उठती हूक
डुबा दे , एक गरम चाय के प्याले में।

साथियों के साथ गर्मजोशी
मालिकों के साथ रस्साखेंची
राजनैतिक सरगर्मी
बहसों का सैलाब
जीवन का संग्राम
और कल के लिए नई सोच
नया जोश और नया ...
आओ दोस्त, एक प्याला और



कस्तूरी






Saturday, September 5, 2009

हम त केहू के ना मानित

मैं कई साल बाद बनारस वापस आया था। बस बालिग होते होते ही यहाँ से चला गया था, इसलिए यहाँ की कोई दार्शनिक याददाश्त नही थी । अब दर्शन पढ़ कर आया , तो जहाँ दर्शन न हो वहां भी दिखाई देता था। थोड़ा बहुत तर्क देना भी सीख आया था, सो दोस्त लोग चाहे ना मानें , कई बार जवाब नही दे पाते थे ।
हम लोग शहर में घूम रहे थे और बुलानाले के इलाके में एक जगह चाय पीने बैठ गए। कुछ ट्राफिक कंट्रोल था , इधर से जाइये , उधर से मत जाइये , वगैरह ।
हमने बगल में बैठे आदमी से पूछा "क्या बात है ? टहरेहू न दी हैं का ?"
वह बोला " चीफ जस्टिस आफ इंडिया आयल हौव्वें । बाबा ( विश्वनाथ ) क दरसन बदे। एही से ई कुल नाकाबंदी हौ। "
इससे पहले कि मैं कुछ कहता, उसके बगल में बैठा आदमी बोल उठा "होइहैं कौनो , हम त बाबा के मानीला और केहू के न मानित । "
मैं इस वक्तव्य की दार्शनिक गहराई में उतर ही रहा था, कि चायवाला गदगद होकर हंस पड़ा। बोला "एही से त हम एन्हें पसंद करीला , जब बोललन तब एकदम असली बात! "
पहले वाले आदमी ने पूछा " औघड़ हौव्वें की का ? "
दुकान वाला बोला " ना ही, सब जने एन्हे अनगढ़ कहलन "

जब मैं पीएच डी कर रहा था, तब पी जी हॉस्टल की कैंटीन ने यह ख्याति अर्जित की थी कि यहाँ अक्सर कांट और मार्क्स पर चर्चाएं सुनाई देती हैं । लड़के गर्व करते थे कि ऐसी जबर्दस्त जगह पर हम रहते हैं । दार्शनिक विषयों की चर्चाओं के बारे में मेरे एक दोस्त एक किस्सा सुनाया करते थे, कहते थे " शंकराचार्य जब मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने मिथिला गए तो गाँव के बाहर कुएं पर पानी भरती एक स्त्री से उन्होंने मिश्राजी का घर पूछा । जानते हैं स्त्री ने क्या उत्तर दिया? उसने घर का रास्ता बताया और कहा कि उस गली में जिस घर के बाहर तोते यह बहस कर रहे हों कि सत्य ज्ञान का अन्तर्निहित गुण है या बाह्य गुण है, वही घर मिश्राजी का है। "

इस क्षेत्र के लोगों की दर्शन रूचि और दर्शन क्षमता के उदाहरणों की कोई कमी नही है। लेकिन आज चाय की दुकान पर का यह सामना शंकराचार्य , मंडन मिश्र , याज्ञावल्क्य , सुकरात , कांट या मार्क्स का सामना करने जैसा नही था। बड़ी से बड़ी सत्ता को नकारने का बुनियादी विचार सामान्य लोगों में कौन सी गलियों से चल कर आता है?मिट्टी में दर्शन हो तो उसकी गंध सामान्य लोगों की वाणी से आती है।

याद करता हूँ तो लगता है कि मेरे लिए यह एक निर्णयात्मक एनकाउंटर था। दर्शन कहाँ होता है इससे परिचय की शुरुआत हुई ।

किसी बुनियादी परिवर्तन का सैद्धांतिक आधार ऐसे विचारों में खोजा जाए तो कैसे रहेगा?

बुधराम