Sunday, September 20, 2009

अपराजित























अपराजित

सर्दियों की शाम
दिनभर की थकान
डुबा दे एक गरम चाय के प्याले में।

रह-रहकर कौंध जाती है
एक तस्वीर...
शाम के धुंधलके में
बूढों के तानें और
रिरियाते बच्चों से घिरी
बाट तकती दो आंखें।
बेकल मन से उठती हूक
डुबा दे , एक गरम चाय के प्याले में।

साथियों के साथ गर्मजोशी
मालिकों के साथ रस्साखेंची
राजनैतिक सरगर्मी
बहसों का सैलाब
जीवन का संग्राम
और कल के लिए नई सोच
नया जोश और नया ...
आओ दोस्त, एक प्याला और



कस्तूरी






1 comment:

  1. वाह! यथार्थ बयान किया आपने तो.
    और फिर यही तो सच्चाई है.
    बेहतरीन

    ReplyDelete